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Hashimpura Aquittal, Tragic but not Unexpected : Vibhuti Narain Rai, IPS (retired)

हाशिमपुरा हत्याकांड के मामले में आया अदालती फैसला दुर्भाग्य पूर्ण जरूर है पर अप्रत्याशित बिलकुल नहीं | यदि आप ध्यानपूर्वक उत्तर प्रदेश सी.आई.डी. की केस डायरियां  पढ़ें तो आप मेरी बात से सहमत होंगे कि जो मामला पी.ए.सी. कर्मियों के खिलाफ बनाया गया था उसमें किसी भी अदालत के लिए उन्हें सज़ा देना आसान नहीं था| मैं इस मामले में शुरू से ही जुड़ा था इस लिए मैं इतना कह सकता हूँ कि  तफ़्तीश करने वाले पहले ही दिन से हत्यारों को बचाने में लगे हुए थे | 22 मई 1987 को जब पी.ए.सी. मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से 42 मुसलमानों को उठाकर गाज़ियाबाद लाई और वहां की दो नहरों के किनारे खड़ा कर उन्हें गोलियों से भून दिया , मैं गाज़ियाबाद का पुलिस अधीक्षक था | घटना रात में लगभग 9 बजे घटी थी और मुझे साढ़े दस बजे के आसपास इस की जानकारी मिली |  जब दूसरे अधिकारियों के साथ मैं एक घटना स्थल पर पहुँचा तो मकनपुर गाँव की गंग नहर पर उस अंधेरी रात मैंने जो दृश्य देखा उसे  जीवन भर नहीं भूल सकता | आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गाँव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना और हर अगला कदम उठाने के पहले यह सुनिश्चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पड़े - सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है । वहां  हमें बाबूदीन नामक एक जीवित व्यक्ति मिला जो इस घटना स्थल पर उस जघन्य हत्याकांड में बचने वाला अकेला शख्स था और जिससे हमें सबसे पहले हाशिमपुरा काण्ड का पता चला | थोड़ी देर बाद ही मुरादनगर नहर के दूसरे घटनास्थल की जानकारी हुई जहां पी.ए.सी. का ट्रक पहले ले जाया गया था और कुछ लोगों को वहाँ मार कर फेक दिया गया था |

 मैंने दोनों घटनास्थलों के सन्दर्भ में एफ.आई.आर. दर्ज़ करने के आदेश दिये पर कुछ ही घंटों में तफ़तीशें मुझसे छीन कर सी.आई.डी. को सौंप दी गई | सामान्य परिस्थितियों में तो यह आदेश उचित ही माना जाता क्योंकि सी.आई.डी.  के पास हमसे ज्यादा संसाधन थे और वे बेहतर तफ्तीश कर सकते थे पर इस मामले में ऐसा नहीं हुआ | शुरू से ही सी.आई.डी. ने अपराधियों को बचाने के प्रयास शुरू कर दिए | उन्होंने बेमन से तफ्तीश शुरू की और उनकी सारी हरकतें दोषियों को बचाने की थी | मैं इस हत्याकांड पर पिछले कुछ  वर्षों      से एक किताब पर काम कर  रहा हूँ और इस सिलसिले में जो तथ्य मेरे हाथ लगे हैं वे चौकाने वाले हैं | सी.आई.डी. नें जानबूझकर उनकी उपेक्षा की है | ख़ास तौर से उन्होंने इस घटना में फ़ौज की भूमिका को नजरंदाज़ कर दिया और पूरे मामले की सूत्रधार  भाजपा की एक नेत्री से कोई पूछ ताछ नहीं की | मैं विस्तार से अपनी किताब में इनका जिक्र करुंगा |

 हाशिमपुरा आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी कस्टोडियल किलिंग की घटना है | 1984 के सिख दंगे  या नेल्ली का नर संहार भी , जिसमें पुलिस की उपस्थिति में लोग मारे गये थे , इस अर्थ में भिन्न हैं कि हाशिमपुरा मे न सिर्फ मरने वाले पुलिस की हिरासत में थे बल्कि उनके हत्यारे भी पुलिस वाले ही थे | इतनी बड़ी संख्या में पुलिस ने पहले कभी भी लोगों को अपनी हिरासत में लेकर नहीं मारा था | भारतीय राज्य की साख खतरे में हैं| यदि इतने बर्बर कांड में भी हत्यारे दंडित नहीं किये जा सके तो एक धर्मनिरपेक्ष समाज होने के उसके सारे दावे धरे रह जायेंगे | जरूरी है कि हाशिमपुरा कांड की नये सिरे से किसी बेहतर एजेंसी से जांच कराई जाय और इस जांच का पर्यवेक्षण हाईकोर्ट करे या फिर हाईकोर्ट तीन रिटायर्ड आई.पी.एस. अफ़सरों की एक टीम इसके लिए नामित करे | बिना नये सिरे से तफ्तीश किये न तो उन असली दोषियों तक पहुँचा जा सकता है जिन्हें सी.आई.डी. नें आपराधिक लापरवाही के चलते छोड़ दिया था और न ही वर्तमान अभियुक्तों को दंडित कराया जा सकता है |      

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