क्रास पर हमला
-राम
पुनियानी
जूलियो रेबेरो भारत के सबसे जानेमाने पुलिस अधिकारियों में से
एक हैं। गत 16
मार्च को उनका लेख एक समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ जिसमें
उन्होंने कहा कि वे इस देश में अजनबी महसूस कर रहे हैं। पुलिस
अधिकारी बतौर अपने अनुभवों की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि
मैं ‘‘स्वयं
को अपने ही देश में डरा हुआ,
अवांछित और अजनबी पा रहा हूं।’’
भारत के एक विशिष्ट नागरिक और असाधारण पुलिस अधिकारी के इस
दर्द और व्यथा को चर्चों पर बढ़ते हमलों और कोलकाता में एक
71
वर्षीय नन के साथ हुए बलात्कार की पृष्ठभूमि में देखा जाना
चाहिए। इस वीभत्स घटना के विरूद्ध पूरे देश का ईसाई समुदाय उठ
खड़ा हुआ है और जगह-जगह मौन जुलूस और अन्य शांतिपूर्ण विरोध
प्रदर्शन किए जा रहे हैं।
पिछले कुछ महीनो से इस अल्पसंख्यक समुदाय पर हमलों और उन्हें
डराने-धमकाने की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है और यह मात्र
संयोग नहीं है। हिंसा के स्वरूप में भी एक उल्लेखनीय परिवर्तन
आया है और वह यह कि जहां पहले ये हमले दूरदराज के आदिवासी
इलाकों में हुआ करते थे,
वहीं अब वे शहरी क्षेत्रों में हो रहे हैं। एक अन्य परिवर्तन
यह हुआ है कि नई सरकार के आने के बाद से इन हमलों की संख्या
में बढोत्तरी हुई है।
ईसाई भारत में सदियों से रह रहे हैं। पहली सदी ईस्वी में सेंट
थॉमस,
केरल के मलाबार तट पर उतरे और वहां उन्होंने चर्च की स्थापना
की। तभी से ईसाई,
भारतीय समाज का अंग बने हुए हैं और उनका सामाजिक जीवन के
विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। नन,
पादरी व मिशनरी लंबे समय से देश के दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में
निवासरत रहते हुए वहां शिक्षा व स्वास्थ्य संबंधी संस्थाएं
स्थापित व संचालित करते आए हैं। देश के कई बड़े नगरों में
उन्होंने प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की है। आज
ईसाई हमारे देश का बहुत छोटा अल्पसंख्यक समूह (2001
की जनगणना के अनुसार आबादी का 2.3
प्रतिशत) हैं। इस समुदाय में भी हिंदुओं और मुसलमानों की तरह
आंतरिक विविधता है व कई पंथ अस्तित्व में हैं।
पिछले कुछ दशकों में आदिवासी इलाकों,
जिनमें डांग (गुजरात),
झाबुआ (मध्यप्रदेश) व कंधमाल (ओडिसा) शामिल हैं,
में हुई ईसाई-विरोधी हिंसा ने पूरे समुदाय को हिलाकर रख दिया
है। बहुवाद और विविधता के मूल्यों में विश्वास करने वालों को
भी इन घटनाओं से गहरा धक्का पहुंचा है। सन्
1990
के दशक के मध्य से शुरू हुई इस हिंसा का एक चरम था पास्टर
ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम लड़कों को
23
जनवरी 1999
को जिंदा जलाया जाना। सन् 2007
व 2008
में कंधमाल में हुई घटनाएं,
इस हिंसा का एक और चरम बिंदू थीं। उसके बाद से,
देश के अलग-अलग हिस्सो में ईसाई पादरियों,
ननों व चर्चों सहित अन्य ईसाई संस्थाओं पर हमले होते रहे। फिर,
पिछले कुछ महीनों में दिल्ली में कई चर्चों पर हमले हुए। जिन
चर्चों को निशाना बनाया गया वे दिल्ली के पांच कोनों में स्थित
थे: दिलशाद गार्डन (पूर्व),
जसोला (दक्षिण-पश्चिम),
रोहिणी (बाहरी दिल्ली),
विकासपुरी (पश्चिम) व बसंतकुंज (दक्षिण)। ऐसा लगता है कि इन
चर्चों को एक सुनियोजित षड़यंत्र के तहत चुना गया ताकि पूरी
दिल्ली को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुविकृत किया जा सके। दिल्ली
पुलिस व केंद्र सरकार का दावा है कि इन हमलों के पीछे मुख्य
उद्देश्य चोरी व लूटपाट आदि था। यह इस तथ्य के बावजूद कि
अधिकांश मामलों में हमलावर,
चर्च में रखी दान पेटियां वहीं छोड़ गये। भाजपा प्रवक्ताओं ने
यह दावा भी किया कि इसी अवधि में कई मंदिरों पर भी हमले हुए।
परंतु इससे चर्चों पर हुए हमलों को न तो उचित ठहराया जा सकता
है और ना ही दोनों प्रकार की घटनाओं को समान दृष्टि से देखा जा
सकता है। जिस तरह से चर्चों पर हमले हुए,
उससे यह साफ है कि यह एक धार्मिक समुदाय को आतंकित करने का
प्रयास था।
इस बीच हिंदू दक्षिणपंथियों के मुखिया व भाजपा के पितृसंगठन
आरएसएस के सरसंघचालक ने यह कहकर हलचल मचा दी कि मदर टेरेसा
परोपकार का जो कार्य करतीं थीं उसका मुख्य उद्देश्य
धर्मपरिवर्तन करवाना था। इस वक्तव्य के बाद दो बड़ी घटनाएं
हुईं। पहली,
हिसार के हरियाणा में एक चर्च पर हमला कर वहां लगे क्रास को
हटाकर उसकी जगह भगवान हनुमान की मूर्ति स्थापित कर दी गई और
संघी पृष्ठभूमि वाले हरियाणा के मुख्यमंत्री ने यह कहा कि उक्त
चर्च के पास्टर धर्मपरिवर्तन की गतिविधियों में संलग्न थे। संघ
के अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद ने कहा कि अगर
धर्मपरिवर्तन बंद नहीं हुए तो चर्चों पर और हमले होंगे। हिसार
में हुई घटना,
सन् 1949
में अयोध्या में बाबरी मस्जिद के भीतर रामलला की मूर्ति
स्थापित करने की घटना की याद दिलाती है। उसके बाद यह दावा किया
गया था कि वह भगवान राम का जन्मस्थान है। मुख्यमंत्री के
वक्तव्य से साफ है कि घटना की जांच किस कोण से की जावेगी और
असली दोषियों के पकडे जाने की कितनी संभावना है। यहां यह
महत्वपूर्ण है कि उक्त पास्टर द्वारा धर्मपरिवर्तन किए जाने की
पुलिस में कभी कोई शिकायत नहीं की गई। ईसाई-विरोधी हिंसा को
औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए धर्मपरिवर्तन का आरोप लंबे समय से
लगाया जाता रहा है।
दूसरी बड़ी घटना पश्चिम बंगाल में हुई,
जहां के समाज का बहुत तेजी से सांप्रदायिकीकरण किया जा रहा है।
कोलकाता में एक 71
वर्षीय नन के साथ बलात्कार हुआ। इस हमले में वे गंभीर रूप से
घायल हो गईं और कई दिनों तक उन्हें अस्पताल में भर्ती रहना
पड़ा। उनका एक आपरेशन भी हुआ। उन्होंने अपने बलात्कारियों को
क्षमा कर दिया है। ऐसा कहा जा रहा है कि यह बलात्कार की एक
अन्य घटना मात्र है,
जबकि इसके पीछे के सांप्रदायिक उद्देश्य को नजरअंदाज करना किसी
के लिए भी असंभव है।
मदर टेरेसा के संबंध में भागवत की टिप्पणी के बाद से ईसाईयों
पर हमले बढते जा रहे हैं और हरियाणा व कोलकाता की घटनाएं इसका
प्रतीक हैं। विहिप खुलकर और हमलों की धमकी दे रही है।
प्रधानमंत्री मोदी ने हाल में इस मुद्दे पर अपनी समझीबूझी
चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि देश में धार्मिक स्वतंत्रता का
सम्मान किया जायेगा। परंतु हम सब जानते हैं कि मोदी अकसर जो
कहते हैं,
वह उनका मंतव्य नहीं होता। पिछले कई महीनों से वे अल्पसंख्यकों
पर हो रहे हमलों के मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए थे और इससे संघ
परिवार को यह स्पष्ट संदेश जा रहा था कि वह अपनी विघटनकारी व
हिंसात्मक गतिविधियों को जारी रख सकता है। ईसाई समुदाय का एक
बड़ा हिस्सा इन बढते हमलों से सकते में है। उसका कहना है कि
मोदी को विकास के मुद्दे पर देश भर में समर्थन मिला था और उसे
यह उम्मीद नहीं थी कि उनके सत्ता में आने के बाद देश में यह सब
कुछ होगा। जो लोग ऐसा सोचते हैं,
उन्हें हम केवल भोला ही कह सकते हैं। मोदी,
आरएसएस के प्रशिक्षित प्रचारक हैं और विघटनकारी एजेण्डा मानो
उनकी जीन्स में है। संघ परिवार के विभिन्न सदस्यों की सहायता
से यह एजेण्डा देशभर में लागू किया जायेगा,
इस संबंध में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
भारत हमेशा से कई धर्मावलंबियो का देश रहा है,
जो सदियों तक मिलजुल कर रहते आये थे और एक-दूसरे के त्यौहारों
में शिरकत करते रहे थे। अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने और उन पर
हमले करने की घटनाओं में पिछले कुछ दशकों में हुई वृद्धि से
हमें इस नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहिए कि भारत में रहने वाले
विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच हमेशा से बैरभाव रहा है। ईसाईयों
की आज जो स्थिति है,
उसका प्रजातांत्रिक अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध वर्गों को
तुरंत संज्ञान लेना चाहिए। यह ‘पहले
कसाई फिर ईसाई’
की पटकथा के अनुरूप है। यह सिर्फ ईसाईयों के अधिकारों पर
अतिक्रमण का प्रश्न नहीं है,
यह प्रजातंत्र की नींव को खोखला करने का प्रयास है। जैसा कि
कहा जाता है,
किसी भी प्रजातंत्र की सफलता की सबसे महत्वपूर्ण कसौटी यह है
कि वह अपने अल्पसंख्यक नागरिकों को समानता व सुरक्षा उपलब्ध
करवा रहा है अथवा नहीं।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक
आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन्
2007
के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)